380 दिन गुजरे...और समय आ गया है कि सड़कों पर पसरे गृहस्थी के तिनके-तिनके को अब समेट लिया जाए. एक साल की खट्टी-मीठी यादों की तह लगाई जाए और एक बार फिर चला जाए उस खेत की ओर जहां हमारी ताजगी भरी सुबह होती है, जहां दोपहरी में हमारा पसीना छलछलाता है और शाम तक जिस खेत की मिट्टी में थककर हम निढ़ाल और निहाल हो जाते हैं. किसान आंदोलन खत्म हो गया है, चलिए मुल्तवी ही कहते हैं. मगर भरोसा है कि अब फिर कभी सवाल हमारी रोटी का न होगा.
दिल्ली की कंक्रीट की इन सड़कों पर फिर कभी हमें अपना पिंड नहीं बसाना पड़ेगा. आज खुला आसमान है. तिरंगे की मजबूत पकड़ है. ये तिरंगा ही तो हमारा कवच रहा. हम किसानों को ताने दिए गए, उलाहने दिए गए. हम कम बोले, मजबूती से इस ध्वज को थामे रहे. आज तपस्या रंग लाई.