फिल्म 'छलांग' हिंदी सिनेमा में हंसल मेहता और राजकुमार राव के मनोरंजन की एक नई लाइन है। ‘छलांग’ का चोला स्पोर्ट्स फिल्म का है, लेकिन इसकी आत्मा एक ऐसी कहानी की है जिससे एक आदमी की जिंदगी पलती है। इस बार ये पालना झज्जर का है। मोंटू यहां के स्कूल में पीटी टीचर है। परवाह उसे किसी दूसरे की तो क्या अपनी भी नहीं है। शुक्ला जी के साथ उसके दिन ‘मस्त’ कट रहे हैं। और, फिर रजनीगंधा सी महकती नीलिमा मैडम की स्कूल में एंट्री हो जाती हैं। कंप्यूटर वह पढ़ाती हैं, सिस्टम मोंटू का हैंग होने लगता है। और, आखिरकार मोंटू का अपना सिस्टम रीबूट करना ही होता है क्योंकि अब उनकी शहंशाही खतरे में है स्कूल में सीनियर पीटी टीचर के आ जाने से।
फिल्म 'छलांग' की असली धुरी राजकुमार राव हैं। उनकी नई छलांग उनके करियर को चार कदम आगे ले जाती है। नुसरत भरूचा को राजकुमार राव का सीनियर कहो तो वह शरमा जाती हैं, लेकिन फिल्म ‘छलांग’ में वह साबित करती हैं कि करने को मिले तो वाकई वह राजकुमार की सीनियर बनकर दिखा सकती हैं। नीलिमा का ये किरदार हिंदी सिनेमा में अध्यापिकाओं का भी नया मापदंड है। सौरभ शुक्ला, सतीश कौशिक और इला अरुण के रूप में फिल्म को अदाकारी के जो त्रिदेव मिले हैं, उनसे फिल्म बिल्कुल आस पड़ोस में घटती दिखाई देती है। फिल्म की यही असल जीत है और इस पर सुहागा है जीशान अयूब की मौजूदगी, हालांकि फिल्म निर्देशक के फेवरेट यहां राजकुमार ही रहे हैं, शुरू से आखिर तक।
हिंदी सिनेमा में देश के हाशिये पर पड़े खेलों पर बनी फिल्में तमाम हैं, मसलन ‘हिप हिप हुर्रे’, ‘बॉक्सर’, ‘जो जीता वही सिकंदर’, ‘चक दे इंडिया’, ‘खड़ूस’, ‘दंगल’ और ‘पंगा’। गौर से देखेंगे तो इन सारी फिल्मों में मुख्य धारा (क्रिकेट) से इतर के खेल को इसके निर्देशकों ने जीवन का एक ऐसा फलसफा सिखाने के लिए इस्तेमाल किया है जिसमें खेल सिर्फ एक माध्यम भर रह जाता है। फिल्म ‘छलांग’ की कामयाबी की वजह भी यही है। इसका चोला एक स्पोर्ट्स फिल्म का है, लेकिन इसकी आत्मा जिंदगी के सबक सिखाने में कामयाब रहती है। फिल्म के तकनीकी पक्ष में ईशित नारायण की सिनेमैटोग्राफी उल्लेखनीय है, संगीत फिल्म का बेहतर हो सकता था।